प्रकृति की सबसे अद्वितीय, विशिष्ट एवं अनमोल कृति मानव है, किन्तु आज के विश्व समुदाय में वह अलग -अलग एवं पृथक - पृथक धर्मों के माध्यम से प्रकृति का अनेक नामकरण करके इसकी उपासना करती है यह बात सर्वविदित है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है । कि हम उस प्रकृति को आराध्य मानते हैं। जिसने हमें बनाया और हमें तरह-तरह के संसाधनों से सुसज्जित किया।
यद्यपि प्रकृति ने सिर्फ हमें ही नही अपितु अन्य जीव जन्तुओं को भी बनाया किन्तु मनुष्यों एवं अन्य जीवों में थोड़ा सा अधिक महत्व मानव जाति को दिया और हमें चिन्तनशील एवं कल्पनाशील अति विकसित मस्तिक दे दिया , कारण यह था कि जैसे एक परिवार का संरक्षक परिवार के अन्य सदस्यों से अनुभवी एवं चिन्तनशील होता है। एक देश का कर्णधार तथा प्रतिनिधित्व करने वाला आम जनता से अधिक संवेदनशील एवं निर्णयशील होता है। ताकि वह अपने परिवार अपनी जनता की रक्षा एवं सेवा कर सके ठीक उसी प्रकार प्रकृति ने इस सृष्टि के संरक्षक के रूप में हमें बनाया और इसी कारण मानव को चिन्तनशीलता एवं कल्पना करने की शक्ति दी और चेतनापूर्ण बनाया ता कि वह अन्य समस्त जातियों की रक्षा एवं सेवा कर सके।
किन्तु मानव जाति आज पथ - दिग्भ्रमित होती जा रही है मानव जाति ने प्रकृति की आराधना और उपासना तो अनेक धर्मो के माध्यम से की किन्तु प्रकृति के अद्वितीय रूप को अनेक नाम देकर मूल कर्तव्य से विमुख हो गये, और प्रकृति ने मानव जाति को जिसलिए इतनी शक्तियाॅ दी उसका यथोचित उपयोग करने के स्थान पर अनेक धर्मो के नाम पर प्रकृति के अनेकानेक नामकरण कर स्वार्थ सिद्धि मात्र के लिए प्रकृति की उपासना करते हुए आपस में वैमनस्यता उत्पन्न कर एक दूसरे से लड़ने लगे।
और आज के परिवेश में आज का आधुनिक मानव सिर्फ भौतिक सुख लोलुपता के लिए इस प्रकृति की उपासना कर रहा है। जो थोड़े बहुत साधु संन्यासी पैगम्बर या धर्म-गुरू हैं वो थोड़ा सा सामान्य से ऊॅचा उठकर मोक्ष रूपी स्वार्थ के लिए प्रकृति की उपासना की प्रेरणा देते हैं। किन्तु प्रकृति ने जो हमें अति विशिष्ट मस्तिष्क दिया है उसकी शक्ति का समुचित उपयोग करते हुए यदि हम स्वतः में आत्मचिन्तन करें तो यही पायेंगे कि हम मानव जाति के लिए या फिर प्रकृति के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं, कुछ भी नही । और इसी का दुष्परिणाम है कि हम प्रकृति के कोप का शिकार भी हो रहे हैं। जबकि वास्तविकता यही है कि हमें प्रकृति ने यह चेतन -शक्ति, यह वैज्ञानिक एवं कल्पनाशील मस्तिष्क मात्र इस प्रकृति की रक्षा एवं सेवा के लिए प्रदान किया हैं।
संसार के अधिकतर लोग अंधविश्वास और मान्यताओं के कारण पुण्य-पाप और सही-गलत के भय में भ्रमित जीवन जी रहे हैं जिसके कारण उनके दैनिक कर्मों में अनेकों प्रकार की त्रुटियाँ हो रही है और उनका जीवन दिन-प्रतिदिन अधिक संघर्षमयी हो रहा है | व्यक्ति को पुस्तकों और इन्टरनेट पर सरलता से सभी प्रकार की जानकारी मिलती है परन्तु यह जानकारी सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है क्योंकि इसमें व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता है |
कुछ मुख्य प्रश्न इस प्रकार है :- 1 परमात्मा साकार है या निराकार?
2 हम देवी देवताओं की इतनी भक्ति करते हैं फिर भी दुखी क्यों है?
3 शास्त्रों में किस प्रभु की भक्ति सर्व श्रेष्ठ बताई है?
4 पवित्र गीता जी में बताए अनुसार वह तत्वदर्शी संत कौन है?
5 पवित्र गीता ज्ञानदाता अपने से अन्य किसकी शरण में जाने को कह रहा है? आदि!
अपने भय और भ्रम से मुक्ति के लिए सभी को ऐसे सटीक ज्ञान एवं तार्किक दृष्टि की आवश्यकता है जो उन्हें अभी तक अन्य किसी भी प्रसिद्ध पुस्तक अथवा व्यक्ति द्वारा प्राप्त नहीं है केवल संत रामपाल जी महाराज के ज्ञान के अलावा।
पवित्र पुस्तक जीने की राह व ज्ञान गंगा अवश्य पढ़ें।
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हीन्दु मुस्लिम सिक्ख ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।